Tuesday, 26 May 2009

दिल्ली के झल्ली मजदूर

भारत का संविधन 'समाजवादी' है। भारतीय संविधन में देश के मजदूर वर्ग ke adhikaron की सूरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं। भारतीय संविधन इनके शोषण की सभी गुंजाइसों को इन कानूनों के जरीए समाप्त करने की भरकस koshish की है। इसके लिए मुख्य रूप से औद्योगिक विवाद अध्निियम 1947, ट्रेड यूनियन ऐक्ट 1926 और भी कई महत्त्वपूर्ण अध्निियमों को संविधन में समय-समय पर जोड़कर, सं}ाोध्न कर मजदूरों-मेहनतक}ाों को एकजूट होने, यूनियन बनाने, संगठित होने तथा अपने हकों-अध्किारों के लिए आन्दोलन करने का अध्किार दिया गया है। दूसरी तरपफ इन कानूनों के रहते हुए एवं इन्हें लागू करने वाली संस्थाओं के रहने के बावजूद इन कानूनों को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। मजदूरों के लिए कानून एवं मजदूरों के अध्किार उन्हीं जगहों पर लागू हो सके जहां संगठीत तौर से मजदूरों या ट्रेड यूनियनों का आन्दोलन पूरे जूझारू संघर्ष में तब्दील हुआ। लेकिन यहां भी यह तभी तक लागू रह सका जब तक मजदूर आन्दोलन चलता रहा या मजदूर वर्ग जागरूक रहा। मजदूर, ट्रेड यूनियन के आन्दोलन की ताप कम होने पर मजदूरों के हासिल किये गये अध्किारों को कारखाना मालिक-प्रबन्ध्न या संस्थान ध्रिे-ध्रिे कम करते हुए इन्हें न्यूनतम स्तर पर ले आई। सरकार के संस्थान जो इन्हें अपनी पहलकदमी पर लागू कर सकती थी/हैं, ने इन्हें अपनी पहलकदमी पर लागू करने को कभी प्राथमिकता नहीं दी। इसे हम सरकार की सोची-समझी नीति भी कह सकते हैं या उद्योगों एवं संस्थाओं के मालिकोें के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नीति भी कह सकते हैं। क्योंकि सरकारी संस्थानों एवं कारखानों में मजदूरांे के ट्रेड यूनियनों को आज भी श्रम अध्किारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इसके उदाहरण हमें बोकारो, दूर्गा पूर, भिलाई, राउफरकेला इस्पात कारखानों, बंदरगाहों, बैंकों, सरकारी कर्मचारियों, रेल उपक्रमों और कोयला एवं विभिन्न खदानों आदि में हम आज भी देखते हैं। मजदूरों के }ाोषण की कवायद प्राचिन काल से ही चलती रही है और मजदूर वर्ग भी इन }ाोषणों के खिलापफ हर समय संघर्ष करता रहा है और उसने अपने संघर्षों से कई विजय हासिल किये हैं। भारत में अंग्रेजों के }ाोषण-काल में म}ाीनी उद्योग आता है और भारतीय समाज में एक नया औद्योगिक मजदूर वर्ग का जन्म होता है। इन उद्योगों में उनका }ाोषण चरम पर होता है और औद्योगिक }ाांति भंग होने लगती है। तभी अंग्रेजी हुकुमत औद्योगिक }ाांति कायम करने के लिए और औद्योगिक उत्पादन }ाांतिपूर्वक चलता रहे, एक कानून बनाती है जिसके द्वारा मजदूर वर्ग अपने अध्किारों को पाने के लिए कारखाना मालिक से सामुहिक सौदेबाजी कर सके, जिसे हम ट्रेड यूनियन अध्निियम 1926 के रूप मेें जानते हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस काल में विभिन्न दे}ाों में साम्राज्यवादी और उपनिवे}ाी गुलामी से मुक्ति के आन्दोलन भी अपने उफपफान पर थे और रूस में 1917 में मजदूर वर्ग ने सर्वहारा क्रांति करके मजदूरों के सोवियत की स्थापना कर ली थी। जिससे दुनिया के मजदूर वर्ग ही सिपर्फ सबक नहीं ले रहे थे बल्कि दुनिया के पूँजीपति एवं उपनिवे}ाी हुकुमत भी सबक लेे रहा था। जिसकी बजह से उस काल में दुनिया के अनेक दे}ाों में वहां का }ाासक-पूँजीपति वर्ग अपने दे}ा में मजदूरों के लिए कई अध्किारों की घोषणा मजदूर वर्ग के आन्दोलन के दबाब में कर रहे थे और उनके हितों के लिए कानून बना रहे थे। भारत में भी वह प्रभाव काम कर रहा था। मजदूर वर्ग इसके बावजूद हो रहे अपने के खिलापफ लगातार आन्दोलनरत था ताकि उसे मिले कानूनी अध्किारों को वह प्राप्त कर सके और उसे बचा सके। आजादी के बाद कुछ हद तक भारत की सरकारें भी इसे मजदूर वर्ग के दबाव में लागू करती रही। लेकिन 1980 और उसके कुछ वर्ष पहले से विदे}ाी पूँजी के साम्राज्यवादी स्वरूप का एवं भारत के पूँजीपतियों के वै}िवक विस्तार की मिली भगत ने भारत के मजदूरों पर लगाम कसने }ाुरू किये एवं निजिकरण, उदारीकरण की प्रकृया बेहद नियंत्रित गति से लागू करना }ाुरू किया। जिसमें भारत सरकार पूरी तौर पर }ाामिल रही। इन नीतियों के खुले और ठोस रूप को वर्ष 1991 में कांग्रेस के नरसिम्हा राव के नेतृत्व की सरकार ने दे}ा में घोषणा करके स्थापित कर दिया। उदारीकरण,निजीकरण की यह बसंती बयार ने साम्राज्यवादी पूँजी और भारत के जूनिसर साम्राज्यवादी पूँजी को कापफी विस्तार दिया। जिससे इन्हें विदे}ाों में और भारत में भी इनके लिए बाजार के विस्तार की खुली प्रतियोगिता के नाम पर अतिरिक्त मुनापफे की बाढ़ का सुख मिलने लगा। लेकिन दूसरी ओर इसने दे}ा के सार्वजनिक उद्योगों को बंद करना }ाुरू किया और दे}ा के मजदूरोें के }ाोषण को और तेज करते हुए तेजतर कर दिया। परिणाम स्वरूप आज मजदूरों का जीवन नर्क से भी बदतर होता चला जा रहा है। इन नीतियों के परिणाम ने कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जबरदस्त प्रहार करतेे हुए उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। कृषि कार्य पूँजी केन्द्रीत होने के कारण एवं बाजार पर बड़े पूँजी के कब्जे ने किसानोें के रीढ़ की हड्डी ही तोड़ डाली और खेती समूल रूप से घाटे का उत्पादन हो गया और वह अनाज उत्पादन एक किसान परिवार के जीवन यापन के लिए भी नाकापफी हो कर रह गया। जिसका नतिजा यह निकला की वह निरक्षर, अ}िाक्षित और अधर््}िाक्षित किसान एवं उसके परिवार के पूरूष सदस्य अपने परिवार की आजीविका चलाने एवं अपने उफपर कृषि से जुड़े होने के कारण हुए कर्जे को अदा करने के लिए बड़े }ाहरों में मेहनत-मजदूरी करने बड़ी संख्या में पहूँचने लगे। मुख्य रूप से झल्ली मजदूरों में खेती से उफजड़े किसानों एवं उसके परिवार के सदस्यों की ही बहुतायत है। दे}ा के अनेक छोटे बड़े }ाहरों में मेहनत करने के लिए मुख्य रूप से बिहार और उत्तर-प्रदे}ा के पूर्वी इलाके के मजदूर आने लगे । खासकर मेट्रोपोलिटन }ाहरों के व्यापार केन्द्रों में ये उत्तर-प्रदे}ा ओर बिहार के उफजड़े किसान सिर पर सामान ढ़ोने, ठेला खिेचने आदि कार्यों में अकु}ाल श्रम के रूप में काम कर रहे हैं, चाहे मुम्बई हो, दिल्ली हो या अन्य दूसरे बड़े }ाहर। दिल्ली में झल्ली मजदूरों की बड़ी तदाद जो मुख्य रूप से दिल्ली के व्यापारिक केन्द्रों जैसे लाल किला के सामने लाला लाजपत राय का इलेक्ट्रोनिक्स मार्केट, चांदनी चैक के नजदीक भगीरथ पैलेस का बिजली मार्केट और दवाई मार्केट, मोरी गेट-क}मीरी गेट का मोटर, आॅटो और ट्रैक्टर आॅटो पाटर््स मार्केट, सदर बाजार का किराना बाजार, गांध्ी नगर का कपड़ा-वेल्वेट मार्केट आदि जगहों पर मजदूरी करता है। जिनकी संख्या 20 से 25 हजार के लगभग है। इन स्थानों पर बाजार के दूकानदार अपनी अलग-अलग समितियां बनाए हुए हैं जो इस प्रकार हैंः- लाजपत राय मार्केट में सी.आर.ई.एम.ए.;क्रेमाद्ध, भगीरथ पैलेस में बी.ई.टी.ए.;बेटाद्ध, पी.आर.ई.एम.डी.ए.;प्रेम्डाद्ध, और डी.ई.टी.ए.;डेटाद्ध एवं मोरी गेट-क}मीरी गेट मार्केट में दिल्ली मोटर्स ट्रेडर्स एसो}िाएसन, ट्रैक्टर आॅटो पाटर््स मर्चेन्ट्स एसो}िाएसन, बैरिंग आॅटो पार्ट्स एसो}िाएसन, इन तमाम दुकानदार समितियों के उफपर आॅटोमोटीव पार्ट्स मर्चेन्ट्स एसो}िाएसन ;अपमाद्ध है। इस अपमा के द्वारा झल्ली मजदूरों के लिए कई नियम बनाए गए हैं जो इनकी वर्दी, बिल्ला और माल ढुलाई भाड़ा से लेकर कई कायदे तय करते हैं। प्राप्त मोटा-माटी जानकारी के अनुसार 35 से 60 किलोग्राम वजन की ढुलाई के लिए इन्हें 3 से 7 रूपये तक दिया जाता है। इसके और भी कई रूप हैं जो अध्ययन की विषय वस्तु हैं। दुकानदारों की बाजार समितियों द्वारा सिमित संख्या में बिल्ला वितरित तो किया जाता है और समीति यह घोषणा करती है कि सिपर्फ बिल्लाधरी मजदूर से ही माल की ढुलाई कराई जाए। लेकिन दिन व दिन इन बाजारों में झल्ली मजदूरों में }ाामिल होते नये मजदूरों की तदाद के अनुसार ये समितियां कोई नियम नहीं बनाती है। जिसका पफायदा भी इन्हीं बाजार समितियों के दुकादारों को होता है कि ये कम मजदूरी देकर इन झल्ली मजदूरों से काम कराते रहते हैंै। लेकिन पुराने और नये मजदूरों का झगड़ा झल्ली मजदूर आपस में ही करते रहते हैं। इन्हें न तो सरकार अपना मजदूर मानती हे न ही दुकानदारों की बाजार समितियां हीं अपना मजदूर मानती हैं। ये भारत के संविधन के अनुसार मजदूर ही नहीं हैं और न हीं इनके लिए श्रम कानून ही काम कर पाता है। जिसके परिणाम स्वरूप इन्हें किसी भी तरह की कानूनी श्रम सुविध उपलब्ध् नहीं है। इन पर न तो भविष्य निध् िकोष अध्निियम, कर्मचारी राज्य बिमा अध्निियम, ट्रेड यूनियन अध्निियम अथवा सामाजिक सुरक्षा अध्निियम के कानून लागू होते हैं, न हीं इसका इन्हें पफायदा दिया जाता है। उल्टे इन्हें दुकानदार समितियों, ग्राहकों के साथ-साथ पुलिस प्र}ाासन का भी कोपभाजन बनना पड़ता है। इन तमाम परिस्थितियों में इनका श्रमिक जीवन बेहद कठिन स्थितियों में गुजरता है और जीवन स्तर नर्क के समान ही व्यतीत होता है। क्योंकि इतनी कम दर पर मजदूरी की कमाई से इनके रहने की स्थितियां भी नारकिय ही होती हैं। इनके परिवार इन्हीं के कमाई पर आश्रित होते हैं। कुल मिलाकर सरकार द्वारा अनदेखी और दुकानदार समितियों के }ाोषणकारी रूख से इनका आर्थिक, सामाजिक और पारिवारीक जीवन बद से बद्तर होता चला जा रहा है। इन झल्ली मजदूरों की बड़ी आबादी अति पिछड़ी, पिछड़ी और दलित जातियों की हीं है।

No comments:

Post a Comment