वे ध्यान में आते रहे हैं
कई कई बार
मैंने देखा है उन्हें
जब मैं अपने कमरे से निकलता
उन गर्मियों में भी
बरसात के उन दिनों में भी
और अब देखा है
उन्हें
इन सर्दियों में भी
वे
एक माँ और उसका बेटा
कई बार देखा है उन्हें
अपने सामने के
सड़क के उस पार
और
आज भी देखा है
उसके बेटे के साथ
गौर से
बेटे को उसके देखा है
आते जाते मैंने
वह हँसता है लेकिन
वह पागल हुआ है
उसकी माँ का चेहरा
दुनिया की निष्ठुरता से पथराए है जरुर
लेकिन अब भी उसके चहरे की आँखें
कोई मददगार धुधंती है
वह पागल नही हुई
और
वह माँ
एक कम्बल और एक बिस्तर के साथ
किसी आसरे में
सड़क किनारे बैठी है
रात कहाँ गुजरेगी
वही जाने
इस महानगर में
कब से भटक रही है
कैसे आई है
माँ ऐसी होती है
हर बेटे को माँ ऐसी ही चाहिए
जब बेटा बड़ा न हो सके
लेकिन बेटा ....
लेकिन सब कुछ
इस समाज का है
है ?
एक बात कहनी है
देखा है मैंने इस दुनिया में
इस समाज की भी और
इस व्यवस्था को भी
अब पागलों की संख्या
बढ़ रही है
सिर्फ़ महानगरों में ही नही
हर जगह हर घर में
की यह समाज परिवार
और यह व्यवस्था
उसमे रहने वालों के लिए नही है
आदमी
अब इस व्यवस्था के लिए
हो कर रह गया है
आदमी का अब कोई
अर्थ नही होता है
आदमियता का भी नही
अर्थ है सिर्फ़
व्यवस्था का
आदमी मर जाता है
व्यवस्था नही
लेकिन
यह व्यवस्था मर सकती है
मारना होगा इसे
अगर हम जिन्दा रहना चाहते हैं
और
अपने भविष्य को
जिन्दा रखना चाहते हैं
अगर
तब
उन्हें नही देखना पड़ेगा
वे पैदा नही होंगे
कोई पागल नही होगा
गरीबी नही होगी
आदमी
आदमी होगा
मैं भी उसके बेटे जैसा हूँ
उसके बेटे में ख़ुद को पाटा हूँ
और मेरी माँ ....
अरुण कुमार 14/12/2008
कई कई बार
मैंने देखा है उन्हें
जब मैं अपने कमरे से निकलता
उन गर्मियों में भी
बरसात के उन दिनों में भी
और अब देखा है
उन्हें
इन सर्दियों में भी
वे
एक माँ और उसका बेटा
कई बार देखा है उन्हें
अपने सामने के
सड़क के उस पार
और
आज भी देखा है
उसके बेटे के साथ
गौर से
बेटे को उसके देखा है
आते जाते मैंने
वह हँसता है लेकिन
वह पागल हुआ है
उसकी माँ का चेहरा
दुनिया की निष्ठुरता से पथराए है जरुर
लेकिन अब भी उसके चहरे की आँखें
कोई मददगार धुधंती है
वह पागल नही हुई
और
वह माँ
एक कम्बल और एक बिस्तर के साथ
किसी आसरे में
सड़क किनारे बैठी है
रात कहाँ गुजरेगी
वही जाने
इस महानगर में
कब से भटक रही है
कैसे आई है
माँ ऐसी होती है
हर बेटे को माँ ऐसी ही चाहिए
जब बेटा बड़ा न हो सके
लेकिन बेटा ....
लेकिन सब कुछ
इस समाज का है
है ?
एक बात कहनी है
देखा है मैंने इस दुनिया में
इस समाज की भी और
इस व्यवस्था को भी
अब पागलों की संख्या
बढ़ रही है
सिर्फ़ महानगरों में ही नही
हर जगह हर घर में
की यह समाज परिवार
और यह व्यवस्था
उसमे रहने वालों के लिए नही है
आदमी
अब इस व्यवस्था के लिए
हो कर रह गया है
आदमी का अब कोई
अर्थ नही होता है
आदमियता का भी नही
अर्थ है सिर्फ़
व्यवस्था का
आदमी मर जाता है
व्यवस्था नही
लेकिन
यह व्यवस्था मर सकती है
मारना होगा इसे
अगर हम जिन्दा रहना चाहते हैं
और
अपने भविष्य को
जिन्दा रखना चाहते हैं
अगर
तब
उन्हें नही देखना पड़ेगा
वे पैदा नही होंगे
कोई पागल नही होगा
गरीबी नही होगी
आदमी
आदमी होगा
मैं भी उसके बेटे जैसा हूँ
उसके बेटे में ख़ुद को पाटा हूँ
और मेरी माँ ....
अरुण कुमार 14/12/2008
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