Sunday 25 January 2009

हर जगह हर घर में

वे ध्यान में आते रहे हैं
कई कई बार

मैंने देखा है उन्हें
जब मैं अपने कमरे से निकलता
उन गर्मियों में भी
बरसात के उन दिनों में भी
और अब देखा है
उन्हें
इन सर्दियों में भी

वे
एक माँ और उसका बेटा
कई बार देखा है उन्हें
अपने सामने के
सड़क के उस पार

और
आज भी देखा है
उसके बेटे के साथ
गौर से
बेटे को उसके देखा है
आते जाते मैंने

वह हँसता है लेकिन
वह पागल हुआ है
उसकी माँ का चेहरा
दुनिया की निष्ठुरता से पथराए है जरुर
लेकिन अब भी उसके चहरे की आँखें
कोई मददगार धुधंती है

वह पागल नही हुई
और
वह माँ
एक कम्बल और एक बिस्तर के साथ
किसी आसरे में
सड़क किनारे बैठी है

रात कहाँ गुजरेगी
वही जाने
इस महानगर में
कब से भटक रही है
कैसे आई है

माँ ऐसी होती है
हर बेटे को माँ ऐसी ही चाहिए
जब बेटा बड़ा हो सके
लेकिन बेटा ....

लेकिन सब कुछ
इस समाज का है
है ?
एक बात कहनी है

देखा है मैंने इस दुनिया में
इस समाज की भी और
इस व्यवस्था को भी

अब पागलों की संख्या
बढ़ रही है
सिर्फ़ महानगरों में ही नही
हर जगह हर घर में

की यह समाज परिवार
और यह व्यवस्था
उसमे रहने वालों के लिए नही है
आदमी
अब इस व्यवस्था के लिए
हो कर रह गया है

आदमी का अब कोई
अर्थ नही होता है
आदमियता का भी नही
अर्थ है सिर्फ़
व्यवस्था का

आदमी मर जाता है
व्यवस्था नही
लेकिन

यह व्यवस्था मर सकती है
मारना होगा इसे
अगर हम जिन्दा रहना चाहते हैं

और
अपने भविष्य को
जिन्दा रखना चाहते हैं
अगर

तब
उन्हें नही देखना पड़ेगा
वे पैदा नही होंगे
कोई पागल नही होगा
गरीबी नही होगी

आदमी
आदमी होगा

मैं भी उसके बेटे जैसा हूँ
उसके बेटे में ख़ुद को पाटा हूँ
और मेरी माँ ....
अरुण कुमार 14/12/2008